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बाल साहित्य

आसमानी धागे

अमिताभ शंकर राय चौधरी


परसों खिचड़ी है। खूब पतंगबाजी होगी। यही सोचते हुए स्कूल से आते ही भल्ला भालू ने किसी तरह खाना खाया, और पतंग लेकर पहुँच गया छत पर। माँ कहती रह गई, 'दो घड़ी आराम कर ले, भल्ला। रात में होम वर्क करना है। परसों जितनी मर्जी गुड्डी उड़ाना।'

मगर सुनता कौन है? वह भागा। छत पर जाकर कलवाली पतंग को ही उड़ाने लगा, जिस पर चाँद बना है। परेता के ऊपर सद्दी का धागा - आगे मंझा - छोर पर पतंग। उड़ते उड़ते चंदा जा पहुँचा मुहल्ले के पार, 'अरे, उस खिड़की पर वही लड़की बैठी हुई है। उदास। क्या सोच रही है?'

चंदा ने कल भी उसे उसी तरह बैठे हुए देखा था। आज भी वह लड़की मायूस बैठी है। आखिर क्यों? पतंग सोचने लगी...

इतने में सर् सर् सर्... भल्ला ने डोर खींची - चंदा ऊपर उठ गया। आसमान में। लो, अब घमासान होने वाला है। सामने एक अद्धा हवा में लहरा रहा है, 'क्यों गुरू, जरा दाँव पेंच हो जाए...!'

'तो यहाँ कौन पीछे हटनेवाला है?' चंदा लहराती तलवार की तरह अपने मंझे को अद्धा के नीचे ले गया। उधर अद्धा ने भी साँप की तरह अपने धागे को एक बार तान कर फिर ढीला छोड़ दिया -

भक्कटे...! चंदा माँझा समेत उखड़ गया। पतंग हवा में बह चली। दरिया में तैरती नाव की तरह। हिलते डुलते काँपते हुए वह गिरने लगी ...उसी लड़की की छत पर...

इतने में टप् टप् टप्... पानी की बड़ी बड़ी बूँदें गिरने लगीं। अरे यह बादल कब घिर आया था, भाई? चंदा भींगने लगी। सोचा - कहीं फट न जाऊँ!

तभी उस लड़की ने हाथ बढ़ाया। लो, चंदा आ गया उसके हाथ में -

'बू बू, यह गुड्डी मुझे दो न।' उसका भाई दौड़ते हुए आया।

'नहीं रे। अभी गिली है। फट जाएगी।'

लड़की ने उसे सुखाने के लिए एक करघे के ऊपर रख दिया। कितनी रहम दिल लड़की है!

चंदा टुकुर टुकुर देखता रहा। घर की बातें सुनता रहा।

'अरी ओ सन्नो, जरा अपने अब्बू को नजीर की चाय की दुकान से बुला तो ला।' सानिआ की अम्माँ ने उसे बाहर भेज दिया। खुद भुनभुनाने लगी, 'हम जुलाहों की तो तकदीर ही फूटी है। बाजार में मंदी। किसी घर में चूल्हा तक नहीं जल रहा है -'

ओ तो यह किसी बुनकर का घर है। चंदा ने देखा - उधर हाथ से साड़ी बुनने का करघा है। उस पर मकड़ी के झाले लटक रहे हैं। कोई छूता तक नहीं। कैसे घर का खर्च चलता है? क्या खाते हैं सब?

दूसरे दिन सुबह सानिआ का भाई साजिद पतंग उड़ा रहा था। इस छत से, उस छत से इक्की दुक्की पतंगे हवाबाजी करने लगीं। बरगद की ऊँची डाल पर फँसी एक गुड्डी लहर लहर कर पुकार रही थी, 'अरे है कोई माई का लाल - जो मुझे यहाँ से आजाद कर के आसमान में उड़ाए?'

फर्फर् सर्सर्...

लाल, हरी, नीली और धारीदार गुड्डियाँ पैंतरा बदल रही थीं। कौन जीता, कौन हारा? चमकेगा किसका सितारा?

चंदा ने सोचा - चलो सानिआ के अब्बा के बारे में इन्हीं लोगों से कहा जाए। अगर ये कुछ मदद कर सकें! रेशम का सूत मिल जाए तो फिरोज मियाँ फिर से साड़ी बुन सकेंगे। उनके हाथ में हुनर जो है।

'अरे भाई लाले, उसने लाल पतंग से कहा, 'दाँव पेंच तो बाद में होगा। पहले हमारी सानिआ के अब्बा के लिए सूत धागे का इंतजाम तो कर दो -।'

'बात क्या है, चंदा ?'

'महीनों हो गए इनका करघा बंद पड़ा है। जुलाहा अगर साड़ी न बुने तो खाए क्या, बताओ ?'

'अरे ओ नीले, अरे मियाँ धारीदार - आज शाम तक कुछ इंतजाम हो जाना चाहिए।'

हवा की लहरों से, आसमानी नीले में ...बात फैल गई।

दोपहर में फिरोज घर आया तो सानिआ की अम्माँ खाने के लिए क्या पूछती? फिरोज कह रहा था, 'कोई कर्नल मामू और उसका भांजा हैं - जिन्होंने बेचारे बुनकरों को दुबई में नौकरी दिलाने का झांसा देकर हजारों रुपये ठग लिए। अब मामा भांजा गायब। पैसे देनेवाले बुनकर भिखारी बन गए हैं। सब मातम मना रहे हैं।'

दिनभर की ड्यूटी बजाकर सूरज हो गया लाल। किसी ने पिचकारी से आकाश के पश्चिम में जोगिया, सिंदूरी और पीले रंग का फव्वारा छोड़ दिया। हवा में अद्धा, लाले, धारीदार, नीले - सब कलाबाजियाँ खा रहे थे। साजिद सोच रहा था कब वह एक पेंच काटे! कमसे कम एक फतह!

हर एक पतंग को मालूम था उसे क्या करना है।

नीचे - करघे के पास सानिआ का अब्बा फिरोज उदास बैठा था। पेड़ से लटकते बया चिड़ियों के घोंसलों के देख देखकर सोच रहा था - ये कितनी आसानी से अपने घोंसले बना लेते हैं, पर हम इतने लाचार क्यों हैं? आसमान में कितनी पतंगें उड़ रही हैं। कितने धागे! कितने रंग! ऐसे ही रंगीन धागे अगर मुझे मिल जाए तो मैं फिर से एक साड़ी बुनकर मंडी ले जाता...

कहते हैं आसमान में कई बार परी जैसे पंखवाले जिब्रील उड़ जाते हैं। ठीक उसी समय किसी की - सच्चे दिल से कही हुई बात को वे जरूर सुन लेते हैं। और उन्हें पूरी करते हैं। तभी तो फिरोज करघे के पास बैठा था कि अचानक एक हवा चली और सानिया चिल्लाने लगी, 'अब्बू, देखो देखो, सारे पतंगों के धागे हमारी छत पर गिर रहे हैं...'

पहले तो फिरोज ने सोचा - किसी की गुड्डी कट गई होगी। मगर उसने भी जब खिड़की से देखा तो दंग रह गया। यह क्या? पतंग की सद्दी, न मंझा। ये तो इंद्रधनुशी रंग लिए रेशम के धागे लटक रहे हैं। ठीक उसकी खिड़की के सामने। उसने धागों को लपेटना शुरू किया। फिर आवाज लगाई, 'बेगम, जरा इधर आना -।'

इधर डूबते सूरज की रोशनी में नहाकर सभी पतंगों के धागों का मानो काया पलट हो गया था। सानिया और फिरोज दौड़ दौड़ कर छत पर से उन्हें समेट रहे थे। इतना मुलायम! यह फिरोजी, यह लाल, यह हरा! ये तो जैसे धागे नहीं आसमानी सौगात हैं!

उधर मगरिब की नमाज खतम हो रही थी। इधर फिरोज आज कितने दिनों के बाद फिर से करघे के सामने बैठा था। खटर् खटर्... खटर् खटर... करघा चल रहा था। एक साड़ी बुनी जा रही थी ...

रात बीती... दिन आया। शाम ढली... फिर रात... करघा चलता रहा...

फिरोज मियाँ का हाथ थक नहीं रहा था - सुबह की अजान से रात की एशा की नमाज तक ...

उन्हीं दिनों नगर के एक रईस की बेटी की शादी होनेवाली थी। जब फिरोज उस साड़ी को बेचने मंडी पहुँचा, तो उनके आदमियों ने ढेर सारे मुहरें देकर उस साड़ी को खरीद लिया।

फिर क्या? फिरोज जुलाहे के घर फिर से चूल्हा जला। सारा मुहल्ला गरम रोटी की खुशबू से महक उठा...

चंदा ने अद्धा पीली सभी पतंगों को और भल्ला को न्योता दिया, 'दोस्तों, आज हमारे घर आना जरूर!'


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